42 - मृत्यु कहते सब जिसे...
मृत्यु कहते सब जिसे, वह सिर्फ तन का त्याग है ।
वास्तविक मृत्यु नहीं है, उसका लघुतम भाग है ।
देह बस मरती है, जीता है अहं, जीता है मन ।
यह अहं और मन पुनः हैं प्राप्त करते पृथक तन ।
दोनों इक सिक्के के पहलू, वासना से हैं भरे ।
मृत्यु कब आसान है, है कौन जो सचमुच मरे ?
गर तुम्हें विश्वास ना हो, स्वयं करके देख लो ।
जैसे हो, वैसे रहोगे, खुद ही मर के देख लो ।
चौंकोगे पा कर, अरे, यह कैसा अद्भुत मेल है !
पाओगे कि आत्महत्या बच्चों का इक खेल है ।
देह ही छूटी है केवल, शेष जो था, है वही ।
देह का ही त्याग है यह, वास्तविक मृत्यु नहीं ।
लाश कहते हैं जिसे हम, देह वो निष्प्राण है ।
किंतु महामृत्यु का दूजा नाम ही निर्वाण है ।
जो महामृत्यु को पाते, लौटकर आते नहीं ।
सिंधु पाने वाले कुछ कतरों को ललचाते नहीं ।
क्या कभी सोचा है तुमने, देह क्यूं ये भार क्यूं ?
बात क्या आखिर है, सारे जीवन का आकार क्यूं ?
जब तलक मन में अहम है, तभी तक आकार है ।
जो अहं से मुक्त है, वह आकृति के पार है ।
वायु, जल, अग्नि, मृदा, आकाश का आकार क्या ?
पंचतत्वी देह के मन में अहं, तो सार क्या ?
अहंकारी ने सदा पाया नहीं, खोया ही है ।
जागरण तो नाम का है, आदमी सोया ही है ।
बढ़ता जायेगा अहं, तुम छोटे होते जाओगे ।
और इक दिन देखना, खुद ख़ाक में खो जाओगे ।
किंतु मन के अहं को तुम, जब कभी पिघलाओगे ।
दूसरे ही पल स्वयं में, एक वृद्धि पाओगे ।
इस कदर पिघलाओ कि परमात्मा से जुड़ सको ।
इस कदर पिघलाओ कि तुम भाप जैसे उड़ सको ।
भाप बनकर उड़ गए, तो सारा अंबर हो तुम्हीं ।
बूंद बन सिंधु में लौटे, सारा सागर हो तुम्हीं ।
वायु, जल, पृथ्वी तुम्हीं, तुम ही अगन, आकाश हो ।
पर जरूरी है तनिक ना, स्वयं का आभास हो ।
सोचते हो तुम कि "मैं" हूं, इसलिए "वो" है छिपा ।
और यही कारण है अब तक, वो नहीं तुमको दिखा ।
तुममें परमात्मा छिपा है, तुम स्वयं अवतार हो ।
उसको पाने की डगर में भी तुम्हीं दीवार हो ।
क्षुद्र सीमाओं को अपनी, लांघकर देखो ज़रा ।
तुममें भी ईश्वर छिपा है, जागकर देखो ज़रा ।
पूछते हो व्यर्थ बातें, उसको हम ढूंढें कहां ?
हर तरफ बिखरा है वो, तुम ढूंढते सारा जहां ।
ढूंढना उसको नहीं है, खुदको बस खोना ही है ।
और तुम खुद खो गए तो, वह प्रकट होना ही है ।
थोथे ज्ञानी, ग्रंथ लेकर, तर्क करते, और बवाल ।
चल रही है उल्टी शिक्षा, कर रहे उल्टे सवाल ।
पूछते हैं लोग, प्रभु को याद हम कैसे करें ?
पूछते हैं लोग, प्रभु का ध्यान हम कैसे धरें ?
जो भी उत्तर आएगा तो और उलझते जाओगे ।
प्रश्न ही उल्टे हैं, सीधा कैसे उत्तर पाओगे ?
प्रश्न होना चाहिए, दुनिया की याद आती है क्यूं ?
प्रश्न होना चाहिए, तृष्णा न बुझ पाती है क्यूं ?
मोह माया तज न पाए, चले उसको खोजने ।
आरती हाथों में लेकर, लगे घर की सोचने ।
मन को स्थिर कर न पाए, सब को धोखा दे रहे ।
ध्यान धंधे में लगा है, नाम उसका ले रहे ।
स्वार्थवश, संकट में केवल, नाम उसका टेरते ।
उम्र बीती, मन न बदला, रोज माला फेरते ।
बंध रहे हो दिन ब दिन, माया में, धन की डोर में ।
भूलना चाहते हो खुद को, घंटियों के शोर में ?
उठो, अपनी आंखें खोलो, देखो तो सृष्टि की ओर ।
कर रही स्वागत तुम्हारा, इक नई भीगी सी भोर ।
सुनो तो, पंछी भला आवाज़ किसको दे रहे ?
देखो तो, ये पेड़ पौधे नाम किसका ले रहे ?
क्या पवन यूं बे सबब ही बह रही है, बोलिए ?
नदी कल कल स्वर में यह क्या कह रही है, बोलिए ?
बादलों के छोटे छोटे बच्चे क्यूं इतरा रहे ?
पर्वतों की गोद में झरने भला क्या गा रहे ?
सोचो तो, ये महके महके फूल क्यूं मुस्का रहे ?
और ये भंवरे भला क्यूं, कलियों पे मंडरा रहे ?
किसके संग खेली है होली, तितलियों से पूछो तो ।
तड़पी क्यूं अंगड़ाई लेकर, बिजलियों से पूछो तो ।
क्यूं मलय से सरसराती शीत लहरें आ रही ?
क्यूं भला बारिश की बूंदें, छन छनन छन गा रही ?
किसकी भक्ति में है डूबा, हर अणु से पूछ लो ।
रंग ये किसने बिखेरे, इंद्रधनु से पूछ लो ।
क्यूं ये कोहरा छा रहा, पागल है किसके नेह में ?
आग ये किसने लगा दी, जंगलों की देह में ?
हम सभी ढोंगी, दिखावट का ये वंदन व्यर्थ है ।
भाव बिन, सब धूप बत्ती, दीप चंदन व्यर्थ है ।
चल रही पूजा सतत चहुं ओर, गहरे अर्थ हैं ।
देखकर महसूस करने में भी हम असमर्थ हैं ।
वृक्ष सारे, बेल की पत्ती से कुछ कम तो नहीं ?
खुशबू फूलों की, अगरबत्ती से कुछ कम तो नहीं ?
प्रसाद है ये प्रकृति का, झूमते फल देखिए ।
जल चढ़ाने आ रहे हैं, काले बादल देखिए ।
चमचमाती आरती अंबर की, चंदा का दिया ।
गड़गड़ा कर बादलों ने, नाद शंखों का किया ।
और मैं क्या क्या कहूं, तुम अब इन्हीं से पूछ लो ।
किसकी पूजा कर रहे ये सब, इन्हीं से पूछ लो ।
निश्चित ही उत्तर मिलेगा, पूछकर देखो तो तुम ।
सब तरफ वो ही दिखेगा, इक नज़र फेंको तो तुम ।
तुमको सृष्टि के हर इक कण में वो आएगा नज़र ।
देखते हो हर तरफ, फिर भी हो उससे बे खबर ।
अपने हाथों से ही मंदिर, मस्जिदें बनवा रहे ।
ढूंढते उसमें खुदा को खुद ही धोखा खा रहे ।
ईश मंदिर में नहीं है, होश में आओ ज़रा ।
प्रार्थना हो जाएगी, इक गीत तो गांव ज़रा ।
सारे कण कण पर लिखा, बस एक उसका नाम है ।
बस वही कान्हा है मीरा का, सिया का राम है ।
उसके, इस होने का तुमको भान जब हो जाएगा ।
कुछ नहीं कह पाओगे तुम, मन वहीं खो जाएगा ।
इस जुबां से उसका विश्लेषण नहीं कर पाओगे ।
दिल कहेगा कह दूं पर, वर्णन नहीं कर पाओगे ।
सोचो, संभव है कोई चम्मच से सागर नाप ले ?
सोचो, संभव है कोई मीटर से नभ को माप ले ?
सब सीमित है, वो अनंता, महिमा क्या गाओगे तुम ?
खोलोगे मुंह बोलने को, गूंगे हो जाओगे तुम ।
जब तलक तुम, तुम रहोगे, वह नज़र आता नहीं ।
उसमे जो खो जाए, वो खुद का पता, पाता नहीं ।
शांति का अनुभव करोगे, हृदय भर भर आएगा ।
नन्हा सा अमृत का झरना, मन में फिर बह जाएगा ।
यूं लगेगा, बज रहे चहुं ओर, स्वर संगीत के ।
कुछ न भाएगा सिवा फिर, उस पिया की प्रीत के ।
उस घड़ी हर ग्रंथ, हर शिक्षा, धरी रह जाएगी ।
सिर झुका रह जाएगा, आंखें भरी रह जाएगी ।
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